"चुप्पी या समझौता करने से धौंस जमाने वालों का हौसला बढ़ता है. बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था को बनाए रखने के लिए चीन भारत के साथ मज़बूती से खड़ा रहेगा."
भारत में चीन के राजदूत शू फ़ेहॉन्ग ने भारत पर लगने जा रहे 50 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ़ के ख़िलाफ़ यह बात कही है, जो 27 अगस्त से लागू होंगे.
जानकारों का मानना है कि भारत में किसी विदेशी राजनयिक की ओर से किसी तीसरे देश के बारे में यह टिप्पणी असामान्य है.
चीनी राजदूत की ओर से यह बयान ऐसे समय में आया है जब कुछ दिन बाद चीन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक होने जा रही है. इस बैठक में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिस्सा लेंगे.
हालांकि, अमेरिका ने चीनी राजदूत के बयान पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है.
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'भारत और चीन एशिया के डबल इंजन'अमेरिकी टैरिफ़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले देशों में चीन का नाम सबसे आगे है. दोनों देशों के बीच तल्ख़ी इतनी बढ़ गई थी कि अमेरिका ने चीनी सामानों पर 145 प्रतिशत और चीन ने अमेरिकी उत्पादों पर 125 फ़ीसदी का टैक्स लगा दिया था.
फिर मई, 2025 में जेनेवा में हुई बैठक में व्यापार समझौते के तहत दोनों देशों ने टैरिफ़ को कम कर दिया था. हालांकि, इसके बावजूद दोनों देशों के बीच टैरिफ़ का मसला पूरी तरह सुलझा नहीं है.
गुरुवार को चीन ने एक बार फिर अमेरिका के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई लेकिन इस बार उसने विदेशी धरती यानी भारत को चुना.
शू फ़ेहॉन्ग ने अमेरिका की तुलना एक 'धमकाने वाले देश' से करते हुए कहा कि वह लंबे समय से मुक्त व्यापार से फ़ायदा उठा रहा है, लेकिन अब वह दूसरे देशों से 'अधिक क़ीमतें' मांगने के लिए टैरिफ़ को 'सौदेबाज़ी के हथियार' के रूप में इस्तेमाल कर रहा है.
शू ने कहा, "अमेरिका ने भारत पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ़ लगाया है और इससे भी अधिक टैरिफ़ लगाने की धमकी दी है. चीन इसका कड़ा विरोध करता है. चुप्पी से धौंस जमाने वालों का हौसला बढ़ता है."
उन्होंने दोनों देशों को एशिया में आर्थिक विकास का 'डबल इंजन' बताया और कहा कि भारत और चीन के बीच एकता से पूरी दुनिया को फ़ायदा होगा.
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यूक्रेन युद्ध के बाद से भारत ने रूस से कच्चे तेल के आयात में वृद्धि कर दी थी. इस वजह से अमेरिका के साथ उसके संबंधों में तनाव पैदा हो गया है और व्यापार समझौते पर बातचीत प्रभावित हुई है.
भारत ने तर्क दिया कि बाइडन प्रशासन ने भारत को वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों को स्थिर करने के लिए रूसी तेल ख़रीदने के लिए कहा था. जबकि अमेरिका का कहना है कि भारत यूक्रेन युद्ध में रूस की वॉर मशीन का समर्थन कर रहा है.
एक तरफ़ अमेरिका के साथ भारत के व्यापार संबंधों में अस्थिरता देखी जा रही है, वहीं दूसरी ओर भारत और चीन के बीच संबंधों में तेज़ी से नरमी महसूस की जा रही है.
लद्दाख़ के गलवान में साल 2020 में हुई झड़पों के बाद दोनों पड़ोसियों के बीच संबंधों में गिरावट आई थी. तब से चीन और भारत धीरे-धीरे संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं.
प्रोफ़ेसर अलका आचार्य दिल्ली में मौजूद इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइनीज़ स्टडीज़ में डायरेक्टर हैं.
चीन से भारत की बढ़ती नज़दीकी पर प्रोफ़ेसर अलका आचार्य कहती हैं, "चीन हो या अमेरिका, दोनों के ख़िलाफ़ जन भावनाओं के स्तर पर यह देखना होगा कि लोग किसके ख़िलाफ़ ज़्यादा हैं. चीन के साथ लंबे समय से सीमा विवाद है लेकिन ट्रंप और मोदी की दोस्ती के बावजूद एकतरफ़ा टैरिफ़ का लगना भारत में कई लोगों के लिए धक्का है."
"ट्रंप ने भारत के पड़ोसी देशों पर इतना टैरिफ़ नहीं लगाया जितना 50 प्रतिशत भारत पर लगा दिया. इसलिए यहां एंटी चाइना की तुलना में एंटी अमेरिका सेंटीमेंट कम नहीं है."
'कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडो-पैसिफ़िक स्टडीज़' के संस्थापक प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा का मानना है कि भारत-चीन के बीच दूरियां कम होने के पीछे अमेरिका एकमात्र फ़ैक्टर नहीं है.
बीबीसी से बातचीत में चिंतामणि महापात्रा कहते हैं, "भारत और चीन के बीच बढ़ती नज़दीकी में अमेरिका कई फ़ैक्टरों में से एक फ़ैक्टर है. बीते कुछ महीनों से दोनों देशों के बीच लगातार बातचीत हो रही थी. चीन आर्थिक रूप से संपन्न है और भारत का अहम व्यापारिक साझेदार है. गलवान के बाद रिश्तों में आई तल्ख़ी को दूर करने के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है."
इस हफ़्ते की शुरुआत में, चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने दिल्ली की दो दिवसीय यात्रा की. इस दौरान उन्होंने कहा कि भारत और चीन को एक दूसरे को 'प्रतिद्वंद्वी या ख़तरे' के बजाय 'भागीदार' के रूप में देखना चाहिए.
वांग यी से मुलाक़ात के बाद पीएम मोदी ने कहा था कि भारत और चीन के बीच स्थिर, भरोसेमंद और रचनात्मक संबंध क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक शांति और समृद्धि में भी बड़ा योगदान देंगे.
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अमेरिका और भारत के बीच मज़बूत साझेदारी, ख़ास तौर पर क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया) जैसे समूहों के ज़रिए चीन के क्षेत्रीय प्रभाव को संतुलित करने का प्रयास करती है.
क्वाड देश इसे औपचारिक सैन्य गठबंधन न बताकर इसे एक अनौपचारिक समूह के रूप में पेश करते हैं लेकिन चीन इसे अपने ख़िलाफ़ एक गठजोड़ के रूप में देखता है.
अगर भारत और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ता है, तो यह साझेदारी कमज़ोर पड़ सकती है, जिससे इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ सकता है.
प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा बताते हैं, "अभी यह देखना होगा कि अमेरिका क्वाड को कितना सपोर्ट करेगा. जापान भी 15 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ़ से ख़ुश नहीं है और ट्रंप ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री से मुलाक़ात नहीं कर रहे हैं. फ़िलहाल क्वाड के भविष्य पर तो प्रश्नवाचक चिह्न लगा हुआ है."
भारत और चीन ब्रिक्स जैसे संगठनों के ज़रिए ग्लोबल साउथ के नेतृत्व में भूमिका निभा रहे हैं. दोनों देश ग्लोबल साउथ के देशों को एकजुट करके पश्चिमी देशों के प्रभुत्व को संतुलित करते हैं.
भारत अब तक अलग-अलग वैश्विक मंचों पर रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने की कोशिश करता आया है. भारत एक ओर अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ क्वाड जैसे गठबंधनों में शामिल है, तो दूसरी ओर ब्रिक्स और एससीओ में चीन और रूस के साथ सहयोग कर रहा है.
यह स्वायत्तता भारत को वैश्विक मंच पर अधिक प्रभावशाली बनाती है, क्योंकि भारत न तो पूरी तरह पश्चिम के साथ है और न ही चीन के नेतृत्व में.
अब चीन के साथ बढ़ती नज़दीकी से भारत की ग्लोबल साउथ में स्थिति पर क्या असर पड़ेगा?
प्रोफ़ेसर अलका आचार्य का कहना है, "क्वाड, एशिया और चीन को लेकर ऐसा लग रहा था कि भारत और अमेरिका एकमत हैं लेकिन अब ऐसा नहीं है. भारत अब सावधानीपूर्वक अपने क़दम रखेगा. चीन का पलड़ा भारी है क्योंकि वो आर्थिक महाशक्ति बन चुका है. लेकिन चीन के लिए ग्लोबल साउथ के नेतृत्व करने की राह आसान नहीं है क्योंकि चीन के बारे में ग्लोबल साउथ के सभी देशों की राय एक नहीं है."
14 अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन जियान से पूछा गया कि जब भारत और अमेरिका के आपसी संबंध चुनौतियों का सामना कर रहे हैं तो चीन भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को किस रूप में देखता है?
इस पर लिन जियान ने कहा था, "चीन, दोनों देशों के नेताओं के बीच बनी आम सहमति पर भारत के साथ काम करने के लिए तैयार है. दोनों देश शंघाई सहयोग संगठन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर समन्वय और सहयोग को मज़बूत करने के लिए तैयार हैं, ताकि चीन-भारत संबंधों के सुदृढ़ और स्थिर विकास को बढ़ावा दिया जा सके."
भारत और अमेरिका के बीच दूरियां बढ़ती हैं, तो इसका असर चीन पर क्या पड़ेगा- यह सवाल कई लोगों के मन में है.
चीन की वेबसाइट गुआंचा में छपीएक रिपोर्ट में कहा गया है कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में भारत के साथ रिश्तों में नज़दीकी से जो लाभ हुए थे, अब दूसरे कार्यकाल में टैरिफ़ के कारण उन पर असर पड़ सकता है. साथ ही इन बदलावों से कहीं न कहीं चीन को फ़ायदा हो सकता है.
गुरुवार को शू फ़ेहॉन्ग ने एक्स पर एक पोस्ट के ज़रिए भारत के अमेरिका और चीन के साथ व्यापार की तुलना की है.
इस पोस्ट में ग्लोबल टाइम्स का एक ग्राफ़िक मौजूद है. इसके मुताबिक़, वित्त वर्ष 2024-25 में भारत-चीन के बीच 127.71 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ जबकि अमेरिका और भारत के बीच 132.21 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ.
हालांकि, अमेरिका भारत के लिए सबसे बड़ा निर्यातक देश है जबकि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बीते कुछ सालों में लगातार बढ़ रहा है.
ऐसे में सवाल यह है कि भारत के लिए चीन क्या अमेरिका का विकल्प हो सकता है? प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होगा.
इसके पीछे की वजह बताते हुए प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, "चीन और पाकिस्तान की दोस्ती में कोई दरार नहीं आएगी इसलिए चीन कभी अमेरिका की जगह नहीं ले सकता है. भारत ने जो मल्टी एलाइनमेंट पॉलिसी अपनाई है, उसी के तहत वह चीन से अपने संबंध सही करने की कोशिश कर रहा है."
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भारत और चीन के बीच लगातार बातचीत जारी है, लेकिन कई मुद्दों पर अब भी सवाल बने हुए हैं.
दोनों देश तीन हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा लंबी सीमा साझा करते हैं जो अब तक स्पष्ट नहीं है. इसी कारण लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर बीते कुछ सालों में दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने आ चुकी हैं.
भारत लंबे समय से 'सीमा पार आतंकवाद' के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराता रहा है, जबकि चीन पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक मदद देता है. यह भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण है, हालांकि पाकिस्तान भारत के आरोपों को नकारता आया है.
इसी कड़ी में चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) भी विवाद का विषय है. पाकिस्तान में बन रहा सीपीईसी (चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से होकर गुज़रता है, जिस पर भारत ने कड़ी आपत्ति जताई है.
साथ ही, भारत ने दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थियों को शरण दी हुई है, जिसे चीन अपनी आंतरिक राजनीति में दख़ल मानता है.
ऐसे में अब सबकी नज़र इस बात पर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के बाद क्या दोनों देशों के रिश्तों को नई दिशा मिल पाएगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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